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|||  गायत्री की गुरु दीक्षा  |||  श्रोत/ संदर्भ: गायत्री महाविज्ञान  

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|||  गायत्री की गुरु दीक्षा  ||| 
श्रोत/ संदर्भ: गायत्री महाविज्ञान  
संपादक : वेदमूर्ति तपोनिष्ट पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य 
प्रस्तुति ✍️ मानसपुत्र संजय कुमार झा / 9679472555 , 9431003698 
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               |||  ॐ श्री गुरुवे नमः ॐ  |||

मनुष्य में अन्य प्राणियों की अपेक्षा जहाँ कितनी ही विशेषतायें हैं, वहाँ कितनी ही कमियाँ भी हैं। एक सबसे बड़ी कमी यह है कि पशु-पक्षियों के बच्चे बिना किसी के सिखाये अपनी जीवनचर्या की साधारण बातें अपने आप सीख जाते हैं, पर मनुष्य का बालक ऐसा नहीं करता है । यदि उसका शिक्षण दूसरे के द्वारा न हो, तो वह उन विशेषताओं को प्राप्त नहीं कर सकता जो मनुष्य में होती हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व की बात है दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में एक मादा भेड़िया मनुष्य के दो छोटे बच्चों को उठा ले गई । कुछ ऐसी विचित्र बात हुई कि उसने उन्हें खाने के बजाय अपना दूध पिलाकर पाल लिया, वे बड़े हो गये । एक दिन शिकारियों का दल भेड़िये की तलाश में इधर से निकला तो हिंसक पशु की माँद में मनुष्य के बालक देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें पकड़ लाये। ये बालक भेड़ियों की तरह चलते थे, वैसे ही गुरति थे, वही सब खाते थे और उनकी सारी मानसिक स्थिति भेड़िये जैसी थी। कारण यही था कि उन्होंने जैसा देखा वैसा सीखा और वैसे ही बन गये।

जो बालक जन्म से बहरे होते हैं, वे जीवनभर गूंगे भी रहते हैं; क्योंकि बालक दूसरे के मुँह से निकलने वाले
शब्दों को सुनकर उसकी नकल करना सीखता है। यदि कान बहरे होने की वजह से वह दूसरों के शब्द सुन नहीं
सकता, तो फिर यह असम्भव है कि शब्दोच्चारण कर सके। धर्म, संस्कृति, रीति रिवाज, भाषा, वेश-भूषा, शिष्टाचार,आहार-विहार आदि बातें बालक अपने निकटवर्ती लोगों से सीखता है। यदि कोई बालक जन्म से ही अकेला रखा जाए, तो वह उन सब बातों से वञ्चित रह जायेगा, जो मनुष्य में होती हैं।

पशु-पक्षियों के बच्चों में यह बात नहीं है । बया पक्षी का छोटा बच्चा पकड़ लिया जाय और वह माँ-बाप से कुछ न सीखे तो भी बड़ा होकर अपने लिए वैसा ही सुन्दर घोंसला बना लेगा जैसा कि अन्य बया पक्षी बनाते हैं, पर अकेला रहने वाला मनुष्य का बालक भाषा, कृषि,शिल्प, संस्कृति, धर्म-शिष्टाचार, लोक-व्यवहार,श्रम-उत्पादन आदि सभी बातों से वञ्चित रह जायेगा। पशुओं के बालक जन्म से ही चलने फिरने लगते हैं और माता का पय पान करने लगते हैं, पर मनुष्य का बालक बहुत दिन में कुछ समझ पाता है। आरम्भ में तो वह करवट बदलना, दूध का स्थान तलाश करना तक नहीं जानता, अपनी माता तक को नहीं पहचानता, इन बातों में
पशुओं के बच्चे अधिक चतुर होते हैं।

मनुष्य कोरे कागज के समान है, कागज पर जैसी स्याही से जैसे अक्षर बनाये जाते हैं, वैसे ही बन जाते हैं । कैमरे की प्लेट पर जो छाया पड़ती है, वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है। मानव मस्तिष्क की रचना भी कोरे कागज एवं फोटो-प्लेट की भाँति है। वह निकटवर्ती वातावरण में से अनेक बातें सीखता है। उसके ऊपर जिन बातों का विशेष प्रभाव पड़ता है, उन्हें वह अपने मानस क्षेत्र में जमा कर लेता है। मनुष्य गीली मिट्टी के समान है जैसे साँचे में ढाल दिया जाए, वैसा ही खिलौना बन जाता है। उच्च परिवारों में पलने वाले बालकों में वैसी ही विशेषतायें होती हैं और निकृष्ट श्रेणी के बीच रहकर जो बालक पलते हैं, उनमें वैसी ही क्षुद्रतायें बहुधा पाई जाती हैं।

हमारे पारदर्शी पूर्वज मनुष्य की इस कमजोरी को भली प्रकार समझते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यदि बालकों पर अनियन्त्रित प्रभाव पड़ता रहा, उनके सुधार और परिवर्तन का प्रारंभ से ही ध्यान न रखा गया, तो यह बहुत मुश्किल है कि वे अपनी मनोभूमि को वैसी बना सकें जैसी कि मानव प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है।
आमतौर से सब माता-पिता उतने सुसंस्कृत नहीं होते कि अपने बच्चों पर केवल अच्छा प्रभाव ही पड़ने दे और बुरे प्रभाव से उन्हें बचाते रहें । दूसरे यह भी है कि माँ-बाप में बालक के प्रति लाड़-प्यार का भाव स्वभावत: अधिक देता है, वे उनके प्रति अधिक उदार एवं मोहग्रस्त होते हैं, ऐसी दशा में अपने बालकों की बुराइयाँ उन्हें सूझ रहीं पड़तीं । फिर इतने सूक्ष्म-दर्शी माँ-बाप कहाँ होते हैं, जो अपनी सन्तान की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण करके कुसंस्कारों का परिमार्जन तत्काल करने को उद्यत रहें ।

|||  इति शुभम् प्रभातम  ...  ॐ शांति ॐ ( क्रमशः )  |||

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